ग़ज़ल :
बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ
मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........
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अरुन शर्मा अनन्त
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बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ
मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........
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अरुन शर्मा अनन्त
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अरे वाह प्रेममय नाम
ReplyDeleteबढ़िया गजल के लिए बधाइयाँ
-सुंदर रचना...
ReplyDeleteआपने लिखा....
मैंने भी पढ़ा...
हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
दिनांक 24/04/ 2014 की
नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
हलचल में सभी का स्वागत है...
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीयचर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल अरुन ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteआज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
ReplyDeleteकल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,...
बहुत ही खूबसूरत शेर है इस गज़ल का ... आफरीन ... आफरीन ...
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
ReplyDeleteकल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
वाह, प्रेम के साथ साथ सामाजिक सरोकार से जुडा है ये आपकी गज़ल।
बहुत सुंदर....
ReplyDeleteवाह बहुत खूब
ReplyDeleteउम्दा ..
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल ...बहुत खूब
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