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Tuesday, April 22, 2014

ग़ज़ल : मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की

ग़ज़ल :
बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ

मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.

हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,

आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,

यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,

रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........

********************
अरुन शर्मा अनन्त
********************

12 comments:

  1. सरिता भाटियाApril 22, 2014 at 2:02 PM

    अरे वाह प्रेममय नाम
    बढ़िया गजल के लिए बधाइयाँ

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  2. -सुंदर रचना...
    आपने लिखा....
    मैंने भी पढ़ा...
    हमारा प्रयास हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना...
    दिनांक 24/04/ 2014 की
    नयी पुरानी हलचल [हिंदी ब्लौग का एकमंच] पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...
    आप भी आना...औरों को बतलाना...हलचल में और भी बहुत कुछ है...
    हलचल में सभी का स्वागत है...

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  3. रविकरApril 22, 2014 at 5:05 PM

    आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीयचर्चा मंच पर ।।

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  4. सुशील कुमार जोशीApril 22, 2014 at 5:29 PM

    बहुत सुंदर गजल अरुन ।

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  6. बेहतरीन

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  7. आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
    कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,...
    बहुत ही खूबसूरत शेर है इस गज़ल का ... आफरीन ... आफरीन ...

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  8. आशा जोगळेकरApril 23, 2014 at 6:32 PM

    आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
    कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
    वाह, प्रेम के साथ साथ सामाजिक सरोकार से जुडा है ये आपकी गज़ल।

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  9. बहुत सुंदर....

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  10. Anju (Anu) ChaudharyApril 24, 2014 at 10:10 PM

    वाह बहुत खूब

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  11. उम्दा ..

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  12. Lekhika 'Pari M Shlok'July 15, 2014 at 11:03 AM

    उम्दा ग़ज़ल ...बहुत खूब

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