मुग्धकारी भाव आखर अब कहाँ,
प्रेम निश्छल वह परस्पर अब कहाँ,
मात गंगा का किया आँचल मलिन,
स्वच्छ निर्मल जल सरोवर अब कहाँ,
रंग त्योहारों का फीका हो चला,
सीख पुरखों की धरोहर अब कहाँ,
सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
संस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,
सांझ बोझिल दिन ब दिन होती गई,
भोर वह सुखमय मनोहर अब कहाँ...
प्रेम निश्छल वह परस्पर अब कहाँ,
मात गंगा का किया आँचल मलिन,
स्वच्छ निर्मल जल सरोवर अब कहाँ,
रंग त्योहारों का फीका हो चला,
सीख पुरखों की धरोहर अब कहाँ,
सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
संस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,
सांझ बोझिल दिन ब दिन होती गई,
भोर वह सुखमय मनोहर अब कहाँ...
नयी पुरानी हलचल का प्रयास है कि इस सुंदर रचना को अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
ReplyDeleteजिससे रचना का संदेश सभी तक पहुंचे... इसी लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 05/06/2014 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
[चर्चाकार का नैतिक करतव्य है कि किसी की रचना लिंक करने से पूर्व वह उस रचना के रचनाकार को इस की सूचना अवश्य दे...]
सादर...
चर्चाकार कुलदीप ठाकुर
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बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुति!!!
ReplyDeleteसभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
ReplyDeleteसंस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,..
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल .. भाषा, दर्शन का भाव लिए हर शेर उत्तम ...
बहुत सुन्दर मित्रवर क्या बात है जय हो
ReplyDeleteजिन्दाब्द