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Wednesday, June 4, 2014

ग़ज़ल : मुग्धकारी भाव आखर अब कहाँ

मुग्धकारी भाव आखर अब कहाँ,
प्रेम निश्छल वह परस्पर अब कहाँ,

मात गंगा का किया आँचल मलिन,
स्वच्छ निर्मल जल सरोवर अब कहाँ,

रंग त्योहारों का फीका हो चला,
सीख पुरखों की धरोहर अब कहाँ,

सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
संस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,

सांझ बोझिल दिन ब दिन होती गई,
भोर वह सुखमय मनोहर अब कहाँ...
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