परस्पर प्रेम का नाता पुरातन छोड़ आया हूँ,
नगर की चाह में मैं गाँव पावन छोड़ आया हूँ,
नगर की चाह में मैं गाँव पावन छोड़ आया हूँ,
सरोवर गुल बहारें स्वच्छ उपवन छोड़ आया हूँ.
सुगन्धित धूप से तुलसी का आँगन छोड़ आया हूँ,
सुगन्धित धूप से तुलसी का आँगन छोड़ आया हूँ,
कि जिन नैनों में केवल प्रेम का सागर छलकता था,
हमेशा के लिए मैं उनमें सावन छोड़ आया हूँ,
हमेशा के लिए मैं उनमें सावन छोड़ आया हूँ,
गगनचुम्बी इमारत की लिए मैं लालसा मन में,
बुजुर्गों की हवेली माँ का दामन छोड़ आया हूँ.
बुजुर्गों की हवेली माँ का दामन छोड़ आया हूँ.
मिलन को हर घड़ी व्याकुल तड़पती प्रियतमा का मैं,
विरह की वेदना में टूटता मन छोड़ आया हूँ,
विरह की वेदना में टूटता मन छोड़ आया हूँ,
अपरिचित व्यक्तियों से मैं नया रिश्ता बनाने को,
जुड़े बचपन से कितने दिल के बंधन छोड़ आया हूँ.
जुड़े बचपन से कितने दिल के बंधन छोड़ आया हूँ.
वाह वाह ! बहुत सुंदर गजल ...!
ReplyDeleteRECENT POST - प्यार में दर्द है.
याद बहुत आता है वह सब।
ReplyDeleteसभी मित्रों को होली की हार्दिक वधाई ! अनुचित नगरीकरण पर अच्छा व्यंग्य है !
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!
ReplyDeleteवाह ! अतिसुन्दर …बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-04-2014) को ""वायदों की गंध तो फैली हुई है दूर तक" (चर्चा मंच-1590) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह !
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