इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
कभी यहाँ प्रेम -सभ्यता की भी बात निराली,
आज यहाँ प्रणाम नमस्ते से आगे है गाली,
इक मसीहा नहीं बचा है कौन करे रखवाली,
शहरों में तब्दील हो रहा प्रकृति की हरियाली,
आज इसी धरती पे प्राणी को प्राणी है खाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
घटती हैं हर रोज हजारों शर्मसार घटनाएं,
काम दरिंदो से बद्तर, खुद को पुरुष बताएं,
पान सुपारी ध्वजा नारियल जो हैं रोज चढ़ाएं,
जनता का धन लूटपाट के अपना काम चलाएं,
अपना ही व्यख्यान सुनाकर फूले नहीं समाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
होंठों पे सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी,
बुरी नज़र की दृष्टि कोण से देखी जाएँ नारी,
भ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
अब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,
ऐसी हालत देख खड़ा बुत भी है शर्माता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्में स्वयं विधाता ...
प्रत्युत्तर देंहटाएंबिल्कुल सही कहा ... बेहतरीन अभिव्यक्ति
आभार सदा दी
हटाएंसंक्रमण के इस दौर में मूल्य हीनता है जहां पसरी और वहां क्या होगा .सरकंडे की फसल लेने के बाद जलानी पड़ती है नै फसल लेने के लिए यही हाल अब देश का है अन्नत अरुण जी .बढ़िया मौजू
प्रत्युत्तर देंहटाएंप्रस्तुति है आपकी .
आदरणीय वीरेंद्र सर बहुत-२ शुक्रिया
हटाएंसच ही कहा है आज विधाता भी अपनी इस रचना पर अपने आपको शर्मिंदा महसूस कर रहा होगा... अपने ही हाथों पतन की ओर तेजी से बढ़ रहा है इंसान...गंभीर रचना...
प्रत्युत्तर देंहटाएंआभार संध्या दीदी आपकी टिप्पणियां उत्साह बढाती हैं
हटाएंइसी देश की धरती पे थे जन्में स्वयं विधाता ...
प्रत्युत्तर देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति,,,,अरुन जी,,,
recent post : समाधान समस्याओं का,
आभार आदरणीय धीरेन्द्र सर
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