ख्वाब आँखों के कोई भी मुकम्मल हो नहीं पाए,
खाकर ठोकर यूँ गिरे फिर उठकर चल नहीं पाए,
खिलाफत कर नहीं पाए बंधे रिश्ते कुछ ऐसे थे,
सवालों के किसी मुद्दे का कोई हल नहीं पाए,
बड़े उलटे सीधे थे, गढ़े रिवाज तेरे शहर के,
लाख कोशिशों के बावजूद हम उनमे ढल नहीं पाए,
थरथराते होंठो ने जब, शिकायत दिल से की,
बहते अश्कों को हांथो से हम फिर मल नहीं पाए,
लगी जब आग सीने में, तेरी यादों की वजह से,
हम जल गए, किस्से जल नहीं पाए......
खाकर ठोकर यूँ गिरे फिर उठकर चल नहीं पाए,
खिलाफत कर नहीं पाए बंधे रिश्ते कुछ ऐसे थे,
सवालों के किसी मुद्दे का कोई हल नहीं पाए,
बड़े उलटे सीधे थे, गढ़े रिवाज तेरे शहर के,
लाख कोशिशों के बावजूद हम उनमे ढल नहीं पाए,
थरथराते होंठो ने जब, शिकायत दिल से की,
बहते अश्कों को हांथो से हम फिर मल नहीं पाए,
लगी जब आग सीने में, तेरी यादों की वजह से,
हम जल गए, किस्से जल नहीं पाए......
बहुत खूब मित्र।
ReplyDeleteसादर
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‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (07-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत बहुत शुक्रिया SIR
ReplyDeleteACHCHHA LIKHTE HO,
ReplyDeleteवाह ... बेहतरीन
ReplyDeleteशुक्रिया सदा जी
ReplyDeleteक्या कहने..
ReplyDeleteगहन भाव लिए...
बहुत खूब रचना...
रीना जी शुक्रिया
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