ख्वाब आँखों के धीरे - धीरे छोटे हो गए,
तमाम लिबास ओढ़े कई मुखोटे हो गए,
बदल चला है समय, दुनिया दारी का,
कि अब इंसान बिन-पेंदी के लोटे हो गए,
ऐसे में कितना - कौन लडेगा भ्रष्टाचारों से,
जब सिक्के सारे अपने देश के खोटे हो गए,
घर में रखे हैं करोडो, मगर पेट भरता नहीं,
दो कौड़ी के चोर भी बड़े मोटे हो गए.......
तमाम लिबास ओढ़े कई मुखोटे हो गए,
बदल चला है समय, दुनिया दारी का,
कि अब इंसान बिन-पेंदी के लोटे हो गए,
ऐसे में कितना - कौन लडेगा भ्रष्टाचारों से,
जब सिक्के सारे अपने देश के खोटे हो गए,
घर में रखे हैं करोडो, मगर पेट भरता नहीं,
दो कौड़ी के चोर भी बड़े मोटे हो गए.......
बहुत खूब !!!
ReplyDeleteधन्यवाद निवेदिता जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteधन्यवाद SIR
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
ReplyDelete:-)
धन्यवाद रीना जी
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