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Thursday, May 9, 2013

ग़ज़ल : चोरी घोटाला और काली कमाई

बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम

चोरी घोटाला और काली कमाई,
गुनाहों के दरिया में दुनिया डुबाई,

निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिशाचों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई,

दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,

कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,

हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,

गली मोड़ नुक्कड़ पे लाखों दरिन्दे,
फ़रिश्ता नहीं इक भी देता दिखाई...

6 comments:

  1. सरिता भाटियाMay 9, 2013 at 7:58 PM

    bilkul sahi kaha arun yahi sab sach hai
    nit naye kirtimaan banate raho

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  2. तुषार राज रस्तोगीMay 9, 2013 at 8:25 PM

    आपकी यह पोस्ट आज के (०९ मई, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - ख़्वाब पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई

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  3. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)May 9, 2013 at 8:30 PM

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2013) के "मेरी विवशता" (चर्चा मंच-1240) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. कालीपद प्रसादMay 10, 2013 at 12:56 PM

    अरुण जी बिलकुल सच लिखा आपने , लिखते रहिये !
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post'वनफूल'
    latest postअनुभूति : क्षणिकाएं

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  5. Kailash SharmaMay 10, 2013 at 11:04 PM

    दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
    गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,

    ...यथार्थ का बहुत सटीक चित्रण...बहुत उम्दा ग़ज़ल...

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  6. Rajendra KumarMay 11, 2013 at 10:16 AM

    मुखौटों का बाजार गर्म है भाई,न जाने दरिंदे किस वेश में सामने आ जाये.बहुत ही सार्थक रचना.

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