बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम
चोरी घोटाला और काली कमाई,
गुनाहों के दरिया में दुनिया डुबाई,
निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिशाचों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई,
दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,
हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,
गली मोड़ नुक्कड़ पे लाखों दरिन्दे,
फ़रिश्ता नहीं इक भी देता दिखाई...
चोरी घोटाला और काली कमाई,
गुनाहों के दरिया में दुनिया डुबाई,
निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिशाचों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई,
दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,
हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,
गली मोड़ नुक्कड़ पे लाखों दरिन्दे,
फ़रिश्ता नहीं इक भी देता दिखाई...
bilkul sahi kaha arun yahi sab sach hai
ReplyDeletenit naye kirtimaan banate raho
आपकी यह पोस्ट आज के (०९ मई, २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - ख़्वाब पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2013) के "मेरी विवशता" (चर्चा मंच-1240) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अरुण जी बिलकुल सच लिखा आपने , लिखते रहिये !
ReplyDeleteडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
ReplyDeleteगगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,
...यथार्थ का बहुत सटीक चित्रण...बहुत उम्दा ग़ज़ल...
मुखौटों का बाजार गर्म है भाई,न जाने दरिंदे किस वेश में सामने आ जाये.बहुत ही सार्थक रचना.
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