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Saturday, May 4, 2013

दोहे

नित नैनो में गन्दगी, होती रही विराज..
कालंकित होता रहा, चुप्पी धरे समाज..

सज्जनता है मिट गई, और गया व्यवहार.
नहीं पुरातन सभ्यता, नहीं तीज त्योहार. 

कोमलता भीतर नहीं, नहीं जिगर में पीर.
बहुत दुशाशन हैं यहाँ, इक नहि अर्जुन वीर. 

अनहोनी होने लगी, गया भरोसा टूट ।
खुलेआम अब हो रही, मर्यादा की लूट ।।

गलत विचारों को लिए, फिरते दुर्जन लोग ।
कटु भाषा हैं बोलते, और परोसें रोग ।।
सदाचार है लुट गया, और गया विश्वास ।
घटनाएं यूँ देखके, मन है हुआ उदास ।।

बिना बात उलझो नहीं, करो न वाद-विवाद.
ढाई आखर प्रेम के, शब्द -शब्द में स्वाद...

9 comments:

  1. धीरेन्द्र सिंह भदौरियाMay 4, 2013 at 4:17 PM

    बहुत बेहतरीन उम्दा दोहे ,,,वाह!!!वाह ,,,अरुन जी,,,

    RECENT POST: दीदार होता है,

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  2. Rajendra KumarMay 4, 2013 at 6:07 PM

    बहुत ही सुन्दर और सार्थक संदेश देते दोहे,शुक्रिया मित्रवर.

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  3. पूरण खण्डेलवालMay 4, 2013 at 7:21 PM

    सटीक दोहे !!

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  4. Ranjana VermaMay 4, 2013 at 8:41 PM

    अभी जो हो रहा है उसपर समाज देश सब मौन है.अभी के सार्थकता को वयां करती सुंदर दोहे.....

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  5. चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’May 4, 2013 at 8:53 PM

    अरे वाह!

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  6. चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’May 4, 2013 at 9:04 PM

    अरे वाह!

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  7. Shalini RastogiMay 4, 2013 at 9:59 PM

    बिना बात उलझो नहीं, करो न वाद-विवाद.
    ढाई आखर प्रेम के, शब्द -शब्द में स्वाद... क्या बात है अरुण जी , बहुत ही सुन्दर, सार्थक व समसामयिक दोहे लिखे हैं आपने ..बधाई!

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  8. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)May 5, 2013 at 8:47 PM

    बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे!
    साझा करने के लिए आभार...!
    --
    सुखद सलोने सपनों में खोइए..!
    ज़िन्दगी का भार प्यार से ढोइए...!!
    शुभ रात्रि ....!

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  9. रश्मि शर्माMay 5, 2013 at 9:12 PM

    बहुत दुशाशन हैं यहाँ, इक नहि अर्जुन वीर. ...बहुत सटीक दोहे हैं

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