दो कदम का सफ़र, जो दिलों तक चला,
मैं फिर तन्हा अकेला मुश्किलों तक चला,
बेचैनी मिल गयी सुर्ख बहती हवा से,
मैं दर्द -वो- गम से बनी मंजिलों तक चला,
समय चलता रहा आगे- आगे मेरे,
मैं पीछे - पीछे उम्रभर काफिलों तक चला,
ढूंढते - ढूंढते तेरे साये को मैं,
जश्न में डूबे हुए, महफिलों तक चला.....
भर गया बाहँ में मुझे दरिया मगर,
मैं मर कर भी साहिलों तक चला......
मैं फिर तन्हा अकेला मुश्किलों तक चला,
बेचैनी मिल गयी सुर्ख बहती हवा से,
मैं दर्द -वो- गम से बनी मंजिलों तक चला,
समय चलता रहा आगे- आगे मेरे,
मैं पीछे - पीछे उम्रभर काफिलों तक चला,
ढूंढते - ढूंढते तेरे साये को मैं,
जश्न में डूबे हुए, महफिलों तक चला.....
भर गया बाहँ में मुझे दरिया मगर,
मैं मर कर भी साहिलों तक चला......
आपकी पोस्ट कल 21/6/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
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चर्चा - 917 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
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सूचनार्थ
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बहुत खूब
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