धागा प्यार का अगर यूँ उलझता नहीं,
इस जुस्तजू को मैं कभी समझता नहीं,
आंशुओं के यूँ रोज़ न आने की खबर होती,
बनकर बदल जो खुद मैं बरसता नहीं,
रातें बनकर अँधेरा जो फैली ना होती,
कोई उन्जालों के खातिर तरसता नहीं.
2 comments:
AmitAagMay 3, 2012 at 2:58 PM
bahut sunder, Arun!
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Arun SharmaMay 3, 2012 at 3:58 PM
बहुत बहुत शुक्रिया अमित जी
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आइये आपका स्वागत है, इतनी दूर आये हैं तो टिप्पणी करके जाइए, लिखने का हौंसला बना रहेगा. सादर
bahut sunder, Arun!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया अमित जी
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