मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.
तुम मीठे रस की मलिका हो,
मैं प्रेमी थोड़ा पागल हूँ.
तुम मंद - मंद मुस्काती हो,
मैं होता रहता घायल हूँ.
तुमसे मिलकर तबियत बदली.
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.
जब ऋतु बासंती बीत गई,
तब तेरी मेरी प्रीत गई.
तुम मुरझाई मैं टूट गया,
मौसम मतवाला रूठ गया.
नैना भीगे, मुस्कान चली
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली..
जब ऋतु बासंती बीत गई,
ReplyDeleteतब तेरी मेरी प्रीत गई.
तुम मुरझाई मैं टूट गया,
मौसम मतवाला रूठ गया....
क्या बात है अरुण जी ... रस के जाते ही प्रीत गई ...
सही कहा गया है ...
'सखी रस के लोभी होते हैं ये सजन सारे'
आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
वाह! बहुत प्यारा गीत...
ReplyDeleteप्रेम,प्यार का सुखद अहसास
ReplyDeleteसुंदर अनुभूति
उत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति मित्रवर,आभार.
ReplyDeleteमैं शुष्क धरा, तुम शीतल बदली..,
ReplyDeleteमैं रसिक लला तुम फूलकली.....
जब ऋतु बासंती बीत गई,
ReplyDeleteतब तेरी मेरी प्रीत गई...बहुत खूब ..रसिक लाल होते है ऐसे हैं.... ..
मैं नीर भरी दुःख की बदली का रोमांटिक संस्करण -मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.
ReplyDeleteमैं रसिक लाल, तुम फूलकली.
ReplyDeleteरोमांच और पुलक दोनों हैं इस रचना में .शुक्रिया हमें चर्चा मंच में न्योतने का .
बहुत सुंदर।
ReplyDelete............
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Lajwabbbbbbbbb.......
ReplyDeleteबड़ी दिलचस्प रचना है यार ,बार बार पढ़ी।
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